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में वह आत्मबुद्धि कर उन्हें अपना मान लेता है। परपदार्थों में आत्मबुद्धि हो जाने के बाद वह उन पदार्थों को पाने के लिए दिन-रात मेहनत करता रहता है। कुछ मिल जाय तो उसके संरक्षण की चिन्ता में आकुल-व्याकुल रहता है। इस प्रकार सतत पर-भाव में रमणता के कारण वह अपना वास्तविक स्वरूप भूल जाता है और निरन्तर दुःख के गर्त में डूबता जाता है । ठीक ही कहा है
परस्पृहा महादुःखं, निस्पृहत्वं महासुखम् । पर-पदार्थों की स्पृहा-लालसा ही आत्मा को दुःखी बनातो है और उनके प्रति रही निस्पृहता आत्मा को सुखी करती है।
परन्तु अज्ञानदशा के कारण प्रात्मा स्व-स्वरूप को जानने में अन्ध सी बन जाती है और भौतिक पदार्थों के पीछे दौड़धूप करती रहती है।
रेती को पीस कर कोई तेल निकालना चाहे अथवा पत्तों का सिंचन कर वृक्ष को हरा-भरा रखना चाहे; यह कैसे सम्भव है ?
जो आत्मा से भिन्न हैं, उनके प्रति राग व प्रासक्ति से प्रात्मा कभी सुखी नहीं हुई है। उससे तो आत्मा विविध दुःखों की भोक्ता ही बनी है।
पर-भाव में आत्मवत् बुद्धि होना ही सबसे बड़ी अज्ञानता है और यह अज्ञानता ही सर्व दुःखों का मूल है। कहा भी है
धन भोगों की खान है, तन रोगों की खान । ज्ञान सुखों की खान है, दुःख खान अज्ञान ॥
शान्त सुधारस विवेचन-१२४