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वही सुवर्ण, जब मिट्टो के संग में रहता है, तब कितना मलिन होता है ? वह पैरों तले रौंदा जाता है। धूल के समान ही उसकी कीमत होती है।
अशुद्ध और शुद्ध स्वर्ण की दशा के बीच जो अन्तर है, वैसे ही अशुद्ध और शुद्ध आत्मा के बीच अन्तर है।
आत्मा जब तक कर्ममल से संयुक्त रहती है, तभी तक इस संसारचक्र में परिभ्रमण करती है। जिस प्रकार लेपकृत तुम्बी पानी के तल में पड़ी रहती है और वही जब लेप से मुक्त हो जाती है, तब ऊर्ध्वगामी बनती है। इस नियमानुसार प्रात्मा जब तक कर्म के संयोग में रहती है, तब तक इस संसार में नाना जन्म-मरण करती रहती है और जब आत्मा कर्म से सर्वथा रहित बन जाती है तब वह अपने मूल सच्चिदानन्द स्वभाव को प्राप्त कर लेती है और एक ही समय में ऊर्ध्वगति कर चौदह राजलोक के अग्रभाग तक पहुँच जाती है। एक बार कर्म-मुक्त हो जाने के बाद पुनः वह शरीर धारण नहीं करती है। मुक्तात्मा को न जन्म की पीड़ा होती है और न ही मरण की। वह अपने निजस्वरूप में मस्त रहती है। चारों ओर कार्मण वर्गणाएँ होते हुए भी रागद्वेष से मुक्त होने के कारण सिद्धात्मा उन्हें ग्रहण नहीं करती है। ...
ज्ञानदर्शन . चरणपर्यव
परिवृतः परमेश्वरः । एक एवानुभव - सदने ,
रमतामविनश्वरः ॥ विनय० ५६ ॥
शान्त सुधारस विवेचन-१४२