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अन्यत्व भावना परः प्रविष्टः कुरुते विनाशं ,
लोकोक्तिरेषा न मृषेति मन्ये । निविश्य कर्माणुभिरस्य किं किं ,. ज्ञानात्मनो नो समपादि कष्टम् ॥ ५८ ॥
(उपजाति) अर्थ-'अपने घर में अन्य का प्रवेश विनाश करता है,' मैं मानता हूँ कि यह लोकोक्ति गलत नहीं है। ज्ञानस्वरूप आत्मा में कर्म के परमाणुगों का प्रवेश हो जाने से प्रात्मा ने किन-किन कष्टों को प्राप्त नहीं किया है ? ॥ ५८ ।।
विवेचन कर्म प्रात्मा के लुटेरे हैं
आपके पास एक विशाल बंगला है। बंगले में अनेक कमरे हैं-शयन-गृह, अतिथि-गृह, स्नान-गृह, भोजन-गृह, पूजा-गृह
आदि । बंगले में साज-सज्जा की अनेक वस्तुएँ दीवारों पर भी टंगी हुई हैं। मकान में तिजोरी भी है, जिसमें लाखों की सम्पत्ति है। इस प्रकार आधुनिक सुख-साधनों से सुसज्जित
शान्त सुधारस विवेचन-१४८