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अफसोस ! एक दिन सनत्कुमार चक्रवर्ती को पट्ट स्त्रीरत्न की केशलता का उन्हें स्पर्श हो गया और एक प्राश्चर्य बन गया। योग के साधक संभूति मुनि भोग के भिखारी बन गये और सोचने लगे-'अहो! इस स्त्रीरत्न की केशलता का स्पर्श भी इतना सुहावना, सुकोमल और सुखदायी है तो इसके अंगस्पर्श में कितना आनन्द होगा?'
बस, उसी समय उन्होंने उस स्त्रीरत्न की प्राप्ति के लिए योग की साधना को बेच देने का निर्णय कर लिया और यह निदान कर लिया कि 'मेरी इस तप-साधना का कोई फल हो तो आगामी भव में मुझे स्त्रीरत्न की प्राप्ति हो।'
तप के फलस्वरूप संभूति मुनि चक्रवर्ती बन भी गए, परन्तु फिर उसका परिणाम ? कहो-सातवीं नरकभूमि । सातवीं नरक की भयंकर यातनाओं में भी रागान्ध बना ब्रह्मदत्त 'कुरुमती' 'कुरुमती' चिल्ला रहा है।
__ संभूति मुनि एक स्त्रीरत्न के पर-भाव में लिप्त हुए तो उन्हे उसका परिणाम ७वीं नरकभूमि का निवास मिला।
घन में प्रासक्त बना मम्मरण सेठ। धन प्रात्मा की सम्पत्ति नहीं है, वह आत्मा से पर है। उसमें मम्मण प्रासक्त बन गया। उसने अपनी सारी शक्ति का उपयोग उस धन के संरक्षण में किया। मरते दम तक उसका यही प्रयास रहा, परन्तु क्या उस धन ने उसे बचा लिया ?
नहीं। बचाना तो दूर रहा बल्कि सातवीं नरक भूमि में धकेल दिया।
शान्त सुधारस विवेचन-१५६