________________
'ए तो वली सखाइ मलीग्रो, भाई थकी भलेरो रे।'
जल्लाद खन्धक मुनि की चमड़ी उतारने के लिए आए हुए हैं और मुनि सोचते हैं- "अहो ! यह तो मेरे लिए कर्म खपाने का स्वरिणम अवसर आ गया। यह राजा तो मेरे भाई से भी बढ़कर है, जो मेरी चमड़ी उतारने के बहाने मेरी आत्मा के बन्धन ही तोड़ देगा। यह मेरी प्रौदारिक देह के नाश के बहाने मेरी आत्मा के बन्धन रूप कार्मरण शरीर का नाश कर रहा है। ओह ! यह राजा मेरा कितना उपकारी है।"
मुनि उन जल्लादों को भी कहते हैं
राय सेवक ने तव कहे मुनिवर , कठरण फरस मुज काया रे। बाधा रखे तुम हाथे थाये ,
कहो तिम रहीये भाया रे॥ मुनि कहते हैं : "तप के कारण मेरी काया कृश बनी हुई है, मेरी चमड़ी अत्यन्त कठोर हो गई है, अतः भाई ! तू कहे वैसे मैं खड़ा रहूँ।"
__ कितनो निर्ममता रही होगी मुनिराज की स्व देह पर? तभी तो उन्हें अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई और वे आत्मा के शाश्वत सुख के भोक्ता बन गए। - प्रतः हे पात्मन् ! यदि तू परम आनन्द का आस्वादन करना चाहता है तो इस देह में आत्मबुद्धि का त्याग कर दे । देह का गुलाम बनने के बजाय इसका मालिक बन जा और इसे प्रात्म-साधना का साधन बना ले।
शान्त सुधारस विवेचन-१६५