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पञ्चम भावनाष्टकम्
( गीतम् ) निज - भवनं,
विनय निभालय निज-भवनं ।
विनय निभालय
तनु - धन सुत - सदन - स्वजनादिषु, निजमिह
कि
कुगतेखनम् ? ॥ विनय० ६३ ॥ |
अर्थ - हे विनय ! तू अपने घर की ( अच्छी तरह से ) देखभाल कर ले | तेरे शरीर, धन, पुत्र, मकान तथा स्वजन आदि में से कोई भी तुझे दुर्गति में जाने से बचाने वाला नहीं है ।। ६३ ।।
विवेचन
दुर्गति से कौन बचाएगा ?
'अन्यत्व भावना' अर्थात् 'मैं' शरीर, पुत्र, परिवार आदि से भिन्न (अन्य ) हूँ । 'मैं' आत्मा हूँ, 'मैं' अकेला हूँ और 'मेरा कोई नहीं है' इत्यादि चिन्तन करना । प्रतिदिन सोने के पूर्व 'संथारा - पोरिसि' के माध्यम से इस भावना का भावन करना
चाहिये ।
एगोsहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ ।
शान्त सुधारस विवेचन- १५६