________________
रुचिर - समतामृतरसं क्षरण
मुदितमास्वादय मुदा । विनय ! विषयातीत-सुखरस ,
रति-रुदञ्चतु ते तदा ॥ विनय० ५७ ॥ अर्थ-जिस समता के अमृतरस का स्वाद तुझमें अचानक जाग उठा है, उसका क्षण भर के लिए प्रास्वादन कर । हे विनय ! विषय से अतीत सुख के रस में तुझे सदा प्रेम हो ॥ ५७ ॥
विवेचन प्रात्मा का सुख-वास्तविक सुख पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी म. ने कहा है
देह मन वचन पुद्गल थकी, कर्म थी भिन्न तुज रूप रे। अक्षय अकलंक छ जीव नु,
ज्ञान प्रानन्द स्वरूप रे॥ आत्मा के शुद्ध स्वरूप का कितना सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया गया है। प्रात्मा न देहस्वरूप है, न मनस्वरूप है, न वचनस्वरूप है और न ही पुद्गलस्वरूप है। आत्मा तो देहातीत है, वचनातीत है। ज्ञान और प्रानन्द यही आत्मा का शुद्ध स्वरूप है।
पूज्य उपाध्याय श्री विनयविजयजी म. एकत्व भावना का उपसहार करते हुए अपनी आत्मा को ही सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे विनय ! एकत्व के भावन से तुझ में जो प्रशम
शान्त-१०
शान्त सुधारस विवेचन-१४५