________________
रुलाया है, उनके आँसुओं को इकट्ठा किया जाय तो उसके आगे स्वयंभूरमण समुद्र भी नगण्य सा प्रतीत होगा।
कुछ भी हो, स्वयं रोए अथवा दूसरों को रुलाए, फिर भी जीवात्मा को परलोक की सफर अकेले ही करनी पड़ती है। एक-दूसरे के प्रेम में पागल होने वाले दुनिया में बहुत मिलेंगे और एक-दूसरे के लिए प्राण देने की बात करने वाले भी मिल जाएंगे और आगे बढ़कर एक की मृत्यु के पीछे अपने जीवन का अन्त भी कर दे तो भी परलोक में वह उसी के साथ रहेगा, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस जन्म में हजारों व्यक्तियों के साथ प्रेम का सम्बन्ध जोड़ने वाले को भी मृत्यु का दुःख अकेले ही सहन करना पड़ता है।
श्रेणिक महाराजा ने जब अनाथी मुनि को कहा- "मैं तुम्हारा नाथ बनने के लिए तैयार हूँ।" तो अनाथी मुनि ने कहा-"तुम स्वयं अनाथ हो अत: मेरे नाथ कैसे बनोगे? यदि सांसारिक समृद्धि से अपने आपको नाथ मानते हो, तब तो ऐसा 'नाथ' मैं भी था। परन्तु वह नाथपना सच्चा नहीं है। कर्म के उदय से आने वाली वेदना को हटाने वाला कौन ?" अन्त में मुनि ने यही कहा
'जिनधर्म बिना नरनाथ, नथी कोई मुक्ति नो साथ ।'
जिनेश्वर का धर्म ही आत्मा का सच्चा साथी है और उसी की शरणागति से प्रात्मा बन्धनमुक्त बनती है।
जैनदर्शन का यह सनातन सत्य है कि प्रात्मा ही अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। प्रात्मा जिस प्रकार के शुभ अथवा अशुभ कर्म का बंध करती है, उसके अनुसार ही वह शुभ अथवा
शान्त सुधारस विवेचन १३६