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विवेचन
आत्मचिन्तन का आनन्द
शुभ-अशुभ विचारों का उद्गमस्थल मन ही है। आचार का मूल भो विचार ही है। अधिकांशतः मनुष्य को प्रवृत्ति उसके मन की वृत्ति के अनुसार होती है। किसी भी कार्य को साकार रूप देने के पूर्व सर्वप्रथम मन में विचार पैदा होता है। तत्पश्चात् मन के भाव वाणी द्वारा व्यक्त होते हैं और फिर वे विचार क्रियात्मक भाव धारण करते हैं।
परभाव में अपनी रमणता का मूल अपना मन ही है। मन यदि समझ जाय तो सद्विचार की ओर मुड़ सकता है । अतः मन को समझाते हुए पूज्य उपाध्यायजी कहते हैं कि हे मन ! तेरे चारों ओर पर-भाव की रमणता का मोटा-काला पर्दा रहा हा है, इस पर्दे को तू हटा दे। इस पर्दे के हटने के साथ ही तुझे स्वरमणता का प्रास्वादन होगा, जो चन्दन वृक्ष के पास से बहते हुए शीतल पवन की भाँति आनन्ददायी होगा।
आत्मस्वरूप के चिन्तन से जीवात्मा को चन्दन से भी अधिक शीतलता का अनुभव होता है। आत्म-रमणता के प्रानन्द की मस्ती कुछ और ही होती है, वह शब्दातीत है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। शक्कर के स्वाद को शब्दों में कहना अशक्य है, उसी प्रकार प्रात्मानन्द की मस्ती को शब्दों से नहीं कह सकते हैं।
आत्मा तो अक्षय सुख का सागर है। उसके निकट जाते ही परम शान्ति की शोतल लहरों का अनुभव होगा।
शान्त सुधारस विवेचन-१२७