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चतुर्थभावनाष्टकम्-गीतम्
विनय चिन्तय वस्तुतत्त्वं ,
जगति निजमिह कस्य किम् ।। भवति मतिरिति यस्य हृदये , .
दुरितमुदयति तस्य किम् ॥ विनय० ५० ॥ अर्थ-हे विनय ! तू वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन कर। इस जगत् में वास्तव में अपना क्या है ? इस प्रकार की बुद्धि जिसके हृदय में उत्पन्न होती है, क्या उसे किसी प्रकार के दुःख का उदय हो सकता है ? ॥५० ।।
- विवेचन जगत् का वास्तविक दर्शन करो
पूज्य उपाध्याय श्री विनयविजयजी म. एकत्व भावना के गेयाष्टक में अपनी आत्मा को हो सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे विनय ! तु जरा विचार कर, इस संसार में तेरा क्या है ?
इस एक वाक्य के चिन्तन में तो सोचने की नई दिशा मिल जाती है। वास्तव में, इस दुनिया में जितने भी पाप हैं अथवा
शान्त सुधारस विवेचन-१३३