________________
अन्य पदार्थों में रही हुई ममता ही आत्मा को परेशान करती है। पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी म. ने ठीक ही कहा है
'अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत् ।' पर-वस्तु में 'अहं' और 'मम' की बुद्धि ही मोह का मंत्र है, जो समस्त जगत् को अंधा करने वाला है।
अपनी आत्मा तो अकेली है और अनन्त ऐश्वर्य सम्पन्न है । वह स्वयं सुख का महासागर है। इस सुख का कितना ही भोग किया जाय वह कभी समाप्त होने वाला नहीं है।
अबुधैः परभावलालसालसदज्ञानदशावशात्मभिः । परवस्तुषु हा स्वकीयता, विषयावेशवशाद् विकल्प्यते ॥४६॥
(प्रबोधता) अर्थ--पर-भाव को पाने की लालसा में पड़ी हुई अज्ञान-दशा से पराधीन अपण्डित आत्मा, इन्द्रिय-विषयों के आवेग के कारण पर-पदार्थों में भी आत्मबुद्धि (स्वकीयता-अपनापन) की कल्पना कर लेती है ॥ ४६ ॥
विवेचन अज्ञानता का प्रभाव
अज्ञानता के कारण प्राणी इन्द्रियों के विषयजन्य सुख को सच्चा सुख मान बैठता है और फिर उसके पीछे दौड़धूप करता है। उसकी यह दौड़धूप निरन्तर चलती रहती है। परपदार्थ
शान्त सुधारस विवेचन-१२३