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जिनाज्ञा के प्रति समर्पित आत्मा के लिए संसार का कोई सुख-वैभव दुर्लभ नहीं है ।
जिसने जिनाज्ञा की शरणागति स्वीकार कर ली, उस पर शासन करने में मोह भी घबराता है । 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं...' का नियम अब उस आत्मा पर लागू नहीं पड़ता है । वह आत्मा तो आसानी से परमपद का भोक्ता बन जाती है ।
राजगृही नगरी में मरण - शय्या पर पड़े कुख्यात डाकू लोहखुर ने अपने बेटे रोहिणेय को कहा - 'बेटा! मेरी एक बात स्वीकार करेगा ?'
उसने कहा - 'पिताजी! फरमाइये । आपकी आज्ञा के खातिर तो प्राणों का बलिदान करने के लिए भी तैयार हूँ ।'
पिता ने कहा -- - ' बस, जीवन में एक बात का ख्याल रखना — भूलकर भी महावीर की वाणी का श्रवण मत करना ।'
रोहिणेय ने पिता को वचन दे दिया और लोहखुर ने अपने प्रारण छोड़ दिए ।
रोहिणेय भयंकर डाकू तो था ही, वह अब डकैती में विशेष निष्णात हो गया । राजगृही की समस्त प्रजा रोहिणेय के भय से आतंकित थी । श्रेणिक के सिपाही भी उसे पकड़ने में असमर्थ थे ।
इसी बीच रोहिणेय जंगल में से गुजर रहा था, पास में ही प्रभु महावीर परमात्मा देशना दे रहे थे । देशना श्रवरण नहीं
शान्त सुधारस विवेचन- ११८