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'मृगजल' समान उसे पाने के लिए निरन्तर दौड़ लगाता रहता है।
थोड़ा सा धन मिला, मानव उसकी मस्ती में पागल हो जाता है और नये-नये सुखों की कल्पना के महल खड़े कर लेता है। अब तो मेरे पास इतना धन है, इससे मैं बड़ा बंगला खरीद लूगा."फिर एक कार खरोद लगा "मनचाहे स्थान पर घूमने जाऊंगा.''और इस प्रकार इस दुनिया में मैं सबसे बड़ा और सुखी हो जाऊंगा। सभी लोग मेरी पृच्छा करेंगे. मुझे सेठ कहेंगे, इत्यादि नाना प्रकार की कल्पनाओं के जाल को गूथ लेता है।
अपनी इस कल्पना को साकार करने के स्वप्न संजोए जब वह बैठता है, तब तक तो यमराज उसका सर्वस्व छीन लेता है और उसे एक रंक की हालत में डाल देता है।
करोड़ों की सम्पत्ति वाले सेठ के पास से मृत्यु उसका सर्वस्व-सम्पत्ति छीन लेती है और उस करोड़पति को वह रोडपति बना देती है।
सकल - संसारभयभेदकं ,
जिनवचो मनसि निबधान रे। विनय परिणमय निःश्रेयसं,
विहित - शमरस - सुधापान रे ॥ कलय० ४४ ॥
अर्थ हे विनय ! संसार के समस्त भयों को भेद देने वाले जिनवचन को हृदय में धारण करो। शान्त रस का अमृतपान कर अपने आपको निःश्रेयस् में बदल दो ।। ४४ ।।
शान्त सुधारस विवेचन-११६