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अथवा गन्दगी से लेश भी घृणा नहीं होती है, उस कीचड़ में लोटने में उसे आनन्द आता है।
बस, यही स्थिति है संसारी जीवात्मा की भी। मोह के नशे में चकचूर होने के कारण जिस स्थान से उसने पूर्व में दुःख पाया है, उसी स्थान में आसक्त बन जाता है ।
उसे पता है कि एक विवाह के कारण उसे कितने कष्ट सहन करने पड़े हैं ? परन्तु ज्योंही एक पत्नी की मृत्यु हो जाती है, पुनः दूसरी शादी करने के लिए वह तैयार हो जाता है । ____ जैसे चोरी करने का आदी बना व्यक्ति, चोरी की सजा को जानते हुए भी चोरी करने से रुकता नहीं है ।
कैंसर व अन्य रोगों की सम्भावना होने पर भी सिगरेट का व्यसनी धूम्रपान का त्याग करने में समर्थ नहीं हो पाता है ।
इसी प्रकार से मोह की मदिरापान के कारण विवेकभ्रष्ट जीवात्मा सुख की चाहना रखते हुए भी दु:ख के साधनों को पाने के लिए ही दौड़ लगाता रहता है और अन्त में दुःख पाता है ।
धन की आसक्ति के कारण जो अनीति की, उसके फल से जीवात्मा परिचित है। भोग की आसक्ति से जो व्यभिचार किया, उसके फल से जीवात्मा परिचित है। शराब की आसक्ति से जो मदिरापान किया, उसके फल से जीवात्मा परिचित है, फिर भी आश्चर्य है कि जीवात्मा उन बुरे व्यसनों से बच नहीं पाया, यही तो मोह का नशा है। इस नशे को अब उतारना ही होगा, तभी दुर्लभता से प्राप्त मानव-जीवन सार्थक बन सकता है।
शान्त सुधारस विवेचन-११४