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शैशवदशा परवशो
जातु
दुर्जयजराजर्जरो, जातु पितृपतिकरायत्त
रे ।। कलय० ४० ॥
अर्थ - जब तू शिशु अवस्था में था, तब अत्यन्त परवश था, जब तरुण अवस्था में आया, तब मद से उन्मत्त बन गया और जब वृद्धावस्था में आया तब जरा से अत्यन्त जर्जरित बन गया और अन्त में यमदेव के पराधीन बन गया ।। ४० ।।
विवेचन
जातु
जातु
तारुण्यमदमत्त
रे ।
संसार में सर्वत्र पराधीनता
इस संसार में जीवात्मा लेश भी स्वतन्त्र नहीं है । जन्म से मृत्यु पर्यन्त उसे नाना प्रकार की पराधीनताओं को सहन करना पड़ता है। शिशु को भी माता-पिता के पराधीन रहना पड़ता है । खाने में पराधीनता, पीने में पराधीनता ।
यौवनावस्था में भी वह स्वतन्त्र कहाँ है ? यदि वह व्यापारी बनता है तो अन्य अनेक व्यापारी व ग्राहकों की पराधीनता सहन करता है । यदि वह सरकारी कर्मचारी है तो अनेक अफसरों को उसे सलाम करना पड़ता है ।
यौवन में धन की चिन्ता, मकान व भोजन की चिन्ता । से वह घिरा हुआ रहता है ।
पुत्र- पत्नी व परिवार की चिन्ता, इस प्रकार चारों ओर समस्याओं
शान्त सुधारस विवेचन- १०७