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यौवन की समाप्ति के बाद वृद्धावस्था घेर लेती है, जो उसके देह के सम्पूर्ण सत्त्व का शोषण कर लेती है और वह अत्यन्त जर्जरित बन जाता है। जो यौवन के उन्माद में अनेक को मार डालने में समर्थ था, अब वृद्धावस्था में वह इतना कमजोर हो जाता है कि उसमें एक मक्खी को भी उड़ाने की शक्ति नहीं होती है।
कदाचित् कुछ पुण्ययोग से वृद्धावस्था में उसकी सेवा-शुश्रूषा करने वाले मिल जायें किन्तु अन्त में तो उसे कृतान्त के मुख में जाना ही पड़ता है और ज्योंही कृतान्त उसे अपनी तीक्ष्ण दाढ़ों में दबोच लेता है, उसकी हालत अत्यन्त दयनीय बन जाती है । उस हालत में उसकी पीड़ा की चीख को सुनने वाला कौन ? मात्र अकेले को ही मृत्यु की भयंकर वेदना सहन करनी पड़ती है ।
व्रजति तनयोऽपि ननु जनकतां ,
___ तनयतां व्रजति पुनरेष रे। भावयन्विकृतिमिति भवगते
स्त्यज तमो नभवशुभशेष रे ॥ कलय० ४१ ॥
अर्थ-इस संसार में पुत्र मरकर पिता बन जाता है और वह पिता मरकर पुनः पुत्र बन जाता है। इस प्रकार इस संसारगति की विकृति (विचित्रता) का विचार करो और इसका त्याग कर दो, अभी भी तुम्हारे इस मनुष्य-जीवन का शुभ भाग बाकी है ।। ४१ ।।
शान्त सुधारस विवेचन-१०८