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भव में भी क्या किया? मात्र दुर्लभता से प्राप्त मन, वचन और काया की शक्ति का दुरुपयोग ही।
दुर्लभ मन भी सदा विषय की वासनाओं से ही ग्रस्त बना रहा। कभी धन की वासना जाग उठी, तो कभी पुत्र की वासना, तो कभी भोग की वासना। वासना के जाल में यह मन सदा ग्रस्त बना रहा।
उस महान् कवि ने प्रभु के आगे अपनी वास्तविक स्थिति दर्शाते हुए ठीक ही कहा है
मैं दान तो दोधु नहि, ने शीयल पण पाल्यु नहि । तप थी दमी काया नहि, शुभ भाव परण भाव्यो नहि ॥
वास्तव में, यही अपना भूतकाल रहा है। मन मिला तो वासनाओं का ही निरन्तर चिन्तन किया । तन मिला तो वासनाओं की तुष्टि का ही प्रयास किया। वचन मिला तो विलासितापूर्ण ही वचनप्रयोग किये और इन सबका परिणाम ? निरन्तर क्लिष्टकर्मों का बंध।
इस प्रकार निरन्तर दुष्कर्मों के प्रासेवन से आत्मा पतन के स्वभाव वाली बन गयी है। पतन-अभिमुख प्रात्मा को इस संसार में क्षण भर के लिए भी शान्ति कहाँ है ? उसकी दौड़ सतत चालू है।
संसार-सुख को पाने की तीव्र लालसा के कारण वह सतत चिन्तातुर रहती है। उसकी एक इच्छा की पूर्ति की चिन्ता समाप्त भी नहीं हो पाती है तब तक उसे अन्य चिन्ताएँ लागू पड़ जाती हैं।
शान्त सुधारस विवेचन-६०