________________
निरन्तर अातंक के कारण प्रात्मा क्षण भर भी सुख और शान्ति का आस्वादन नहीं कर पाती है।
गलत्येका चिन्ता भवति पुनरन्या तदधिका , मनोवाक्कायेहाविकृतिरतिरोषात्तरजसः विपद्गर्तावर्ते झटिति पतयालोः प्रतिपदं , न जन्तोः संसारे भवति कथमतिविरतिः ॥ ३३ ॥
(शिखरिणी) अर्थ-मन, वचन और काया की इच्छाओं के विकार से जीवात्मा राग-द्वेष कर कर्म रूपी रज को ग्रहण करती है, उसकी एक चिन्ता दूर होती है, तो उससे बढ़कर दूसरी नई चिन्ता खड़ी हो जाती है। प्रतिपल विपत्ति के गर्त के प्रावर्त में पड़ने के स्वभाव वाले इस प्राणी के लिए इस संसार में किसी भी प्रकार से आपत्ति का अन्त कैसे हो सकता है ? ॥३३ ।।
विवेचन चिन्ताग्रस्त स्थिति
इस संसार में अपनी आत्मा अनन्त काल तक निगोद में रही है। जहाँ मात्र एक ही इन्द्रिय होती है। एकेन्द्रिय अवस्था में जीव के पास न तो वाणी होती है और न ही सोचने की शक्ति। फिर क्रमशः अकामनिर्जरा व भवितव्यता के फलस्वरूप प्रात्मा को बेइन्द्रिय-तेइन्द्रिय-चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अवस्था की प्राप्ति होती है। पंचेन्द्रिय अवस्था में भी अपनी आत्मा बहुत बार पशु अवस्था में रही। वहाँ उसे चेतन मन मिला। कभी-कभी उसे मानव और देव भव की प्राप्ति हुई। किन्तु मानव और देव के
शान्त सुधारस विवेचन-८६