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प्रभु ने कहा-"अनादिकाल से।" "तो प्रभो! माज तक मेरे कितने भव हुए ?" प्रभु ने कहा- "अनन्तानन्त ।"
सर्वज्ञ सर्वदर्भो भो जोवात्मा के संसार-परिभ्रमण की आदि नहीं बता सकते हैं।
अपनी आत्मा का अनन्तकाल निगोद में व्यतीत हुआ है। निगोद से बाहर निकलने के बाद भी अपनी आत्मा के जितने भव हुए हैं, उन सबका कथन सर्वज्ञ परमात्मा भी नहीं कर सकते हैं। कल्पना करें, किसी सर्वज्ञ भगवन्त के हजार मुख हों, उनका हजार वर्ष का आयुष्य हो और प्रति सैकण्ड अपना एक भव बतलावें और वे जीवन पर्यन्त कहते ही रहें तो भी वे हमारे भवों का वर्णन नहीं कर सकते हैं। हजार मुख वाले हजारों केवलो भी अपने समस्त भवों का वाणी से कथन करने में असमर्थ हैं। इस प्रकार इस संसार में प्रत्येक जीवात्मा ने अनन्तानन्त भव किए हैं।
एक पुद्गलपरावर्तकाल अर्थात् अनन्तकालचक्र। जब जोवात्मा चोदह राजलोक में रहे समस्त पुद्गलों को (आहारक वर्गणा के पुद्गलों को छोड़कर) औदारिक आदि वर्गणा के द्वारा भोग लेता है तब एक पुद्गलपरावर्तकाल होता है। इसमें अनन्त चौबी सियाँ बीत जाती हैं। ऐसे अनन्त पुद्गलपरावर्तकाल से आत्मा इस संसार में भ्रमण करती आ रही है।
और इस अनन्तकाल में चौदह राजलोक में एक भी ऐसा आकाशप्रदेश नहीं बचा है, जहाँ अपनी आत्मा ने जन्म और मृत्यु के द्वारा स्पर्श नहीं किया हो ।
शान्त-७
शान्त सुधारस विवेचन-६७