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तृतीयभावनाष्टकम्
(गीतम् ) कलय संसारमतिदारुणं,
जन्म-मरणादिभयभीत रे। मोहरिपुणेह सगलग्रहं ,
प्रतिपदं विपदमुपनीत रे ॥ कलय० ३७ ॥
अर्थ-जन्म-मरण आदि के भय से भयभीत बने हे प्राणी ! तू इस संसार की प्रतिभयंकरता को समझ ले, मोह रूपी शत्रु ने तुझे गले से बराबर पकड़ लिया है और वह हर कदम पर तुझे आपत्ति में डाल रहा है ।। ३७ ।।
विवेचन मोह की विडम्बना से भरा संसार
संसार-भावना के अन्तर्गत संसार के वास्तविक स्वरूप का दर्शन कराया गया है। इस संसार का बाह्य दिखावा-आडम्बर तो बहुत चित्ताकर्षक है, किन्तु भीतर से यह अति भयंकर है । यह संसार भी उन्हीं को अच्छा लगता है, जो मोह के नशे में हैं। वे शत्रु स्वरूप मोह को भी मित्र समझ बैठे हैं।
शान्त सुधारस विवेचन-९९