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जीवात्मा को जन्म की पीड़ा पसन्द नहीं है । जीवात्मा को मृत्यु का दुःख नापसन्द है ।
जीवात्मा को वृद्धावस्था की वेदनाएँ प्रिय नहीं हैं। वह सुख चाहता है और दुःख से मुक्त बनना चाहता है। परन्तु वह ससार से मुक्त बनना नहीं चाहता है ।
पूज्य उपाध्यायजी म. हमें सम्यग्बोध देते हुए कहते हैं कि सर्वप्रथम इस संसार की भयंकरता को समझ लो। यह संसार नाना प्रकार को यातनाओं का घर है। वास्तविक सुख तो मुक्ति में ही है। अतः इस मोह के नशे का त्याग कर दो। 0
स्वजनतनयादिपरिचयगुण
रिह मुधा बध्यसे मूढ रे। प्रतिपदं नवनवैरनुभवैः ,
परिभवैरसकृदुपगूढ रे ॥ कलय० ३८ ॥ अर्थ-हे मूढ़ ! . स्वजन तथा पुत्र आदि की परिचय रूपी डोरी से तू व्यर्थ ही अपने आपको बाँध रहा है। तू कदम-कदम पर नये-नये अनुभवों के द्वारा अनेक प्रकार के पराभवों से घिरा हुना है ।। ३८ ॥
विवेचन स्वजन का प्रेम झूठा है
स्वजन अर्थात् आत्मीयजन । सच्चा स्वजन तो वह है
शान्त सुधारस विवेचन-१०१