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हाँ। पूँछ का अन्तर जरूर है, किन्तु अज्ञान - चेष्टाएँ तो दोनों की प्रायः समान ही होती हैं।
फिर मानव प्राणी कुछ बड़ा होता है । कुछ पढ़ता है, सीखता है और अहंकार से ग्रस्त हो जाता है। कुछ धन और समृद्धि मिल गई तो भी वह शान्त नहीं होता है। अन्दर से वह उछलता रहता है और इस प्रकार वह अपनी शान्ति खो देता है।
मानव प्राणी जन्म के समय दु:खी, बचपन में दुःखी और फिर यौवन के प्रांगण में प्रवेश कर कुछ पाने की....कुछ नवीन करने की धुन में लग जाता है। ज्योंही कुछ सुख की सामग्री पाकर उसे भोगने की तैयारी करता है, तब तक तो बुढ़ापा उसकी इंतजारी करता हुअा अत्यन्त निकट आ जाता है और उसे घेर लेता है।
खाने को मिष्टान्न मिल रहे हैं, किन्तु पचाने की शक्ति क्षीण हो गई है। देखने के लिए टी.वी. के प्रोग्राम हैं, किन्तु आँखों की ज्योति समाप्त हो गई है। Hill Station पर घूमने का प्रोग्राम बना है, किन्तु पैर लड़खड़ा रहे हैं ।
इस प्रकार सुख-भोग की अनुकूलता के समय ही उसकी स्थिति दयनीय बन जाती है। जरावस्था तो मृत्यु की सहचरी है। विभ्रान्तचित्तो बत बम्भ्रमीति ,
पक्षीव रुद्धस्तनुपञ्जरेऽङ्गी । नुन्नो नियत्याऽतनुकर्मतन्तुसन्दानितः सन्निहितान्तकौतुः ॥ ३५ ॥
(उपजाति)
न.
शान्त सुधारस विवेचन-६४