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पाकरः सर्वदोषारणा, गुरणग्रसन-राक्षसः । कन्दो व्यसनवल्लीनां, लोभः सर्वार्थबाधकः॥
अर्थ-"लोभ तो सर्व दोषों की खान है, गुण का ग्रास करने वाला राक्षस है, सर्व आपत्तियों का मूल और सर्व सिद्धियों में बाधक है।"
इस प्रकार इस संसार में एक ओर लोभ के भयंकर दावानल को शान्त करने की सबसे बड़ी समस्या है तो दूसरी ओर इन्द्रियों की अनुकूल तृष्णा भी जीवात्मा को सतत परेशान कर रही है।
आँख को रूप-दर्शन में तृप्ति नहीं है। कितनी ही रूपरमणियों के रूप का पान कर लिया, फिर भी जब नई रूप-रमरणी पास से गुजरती है तो वह उसके भी रूप में मुग्ध बन जाता है । पेट की भूख तो भोजन से शान्त हो जाती है, किन्तु रूप-दर्शन की तृष्णा कभी तृप्त होती ही नहीं है ।
कान को मधुर संगीत के श्रवण से तृप्ति नहीं। रसना को मधुर स्वादिष्ट भोजन से तृप्ति नहीं। .
इस प्रकार सभी इन्द्रियाँ अनुकूल विषय की प्राप्ति होने पर भी सदा अतृप्त ही रहती हैं। अतृप्त इन्द्रियाँ नये-नये इष्टविषयों को पाने के लिए प्रयत्नशील बनती हैं। कदाचित् इष्टविषय मिल भी जाएं तो भी वह तृप्त नहीं बनती है, बल्कि उसकी तृष्णा अधिक तीव्र बनती है।
इस प्रकार इस संसार में एक ओर आत्मा लोभ से परेशान है तो दूसरी ओर तृष्णा से। इस प्रकार लोभ और तृष्णा के
शान्त सुधारस विवेचन-८८