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कप्तान ने कहा-"अब परिस्थिति विकट है, जहाज को बचाना अशक्य है, जिसे तैरना आता हो, तैरकर अपनी जान बचा ले।"
सेठजी ने यह बात सुनी। खाली डिब्बे पास में ही पड़े थे। साथ ही विदेश से लौट रहे थे अतः सोने के सिक्के भी बड़ी संख्या में साथ ही थे।
सेठ ने सोचा-"खाली डिब्बों को लेकर कूदना, इसके बजाय इनमें सोना मोहर भर लू, तो कितना अच्छा होगा? मैं भी बच जाऊंगा और सार-सार भी बच जाएगा।"
तत्काल सेठजी ने एक डिब्बे में चार सौ सोना मोहर भर ली और उसे उठाकर समुद्र में कूद पड़े।
सेठजी तैरना तो जानते नहीं थे। बेचारे समुद्र के गहन तल में जा पहुँचे; लोभ ने उनके प्राण ले लिए।
लोभी व्यक्ति की अधिकांशतः यही स्थिति होती है। वह कभी तृप्त होता ही नहीं है।
• एक नगर के महाराजा का यह नियम था कि प्रात:काल में उसके द्वार पर जो कोई भी याचक आवे उसे वह मुंह मांगा दान देता था। इस प्रकार दान के प्रवाह व प्रभाव से उसकी कीर्ति दिग् दिगन्त तक फैल गई।
एक दिन उसके द्वार पर एक संन्यासी पाया। राजा ने कहा-"बाबाजी! फरमाइये । पापको मैं क्या दूं?"
शान्त सुधारस विवेचन-८६