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करने के लिए ज्यों-ज्यों इच्छा-पूर्ति होती जाती है, त्यों-त्यों इस लोभ की आग बढ़ती ही जाती है ।
• मम्मण सेठ के पास इतना अधिक धन था कि जिसके आगे श्रेणिक की समृद्धि भी नगण्य थी। परन्तु मम्मरण लोभ की आग में डूबा हुआ था। जिस प्रकार खुजली का रोगी ज्यों-ज्यों खुजलाता है, त्यों-त्यों शान्ति के बजाय उसकी खाज बढ़ती ही जाती है, इसी प्रकार मम्मरण के पास इतनी अधिक समृद्धि होते हुए भी वह सदा अतृप्त ही था। अधिकाधिक धन-समृद्धि को पाने के लिए वह तनतोड़ मेहनत करता था।
अमावस्या की घनघोर रात्रि में भयंकर मुसलाधार वर्षा हो रही थी। चारों ओर नगर में पानी छाया हुआ था और नदियों में भयंकर बाढ़ आई हुई थी। राजमार्ग पर न तो कोई मनुष्य ही दिखाई दे रहा था और न ही कोई पशु। परन्तु ऐसी भीषण बाढ़ में भी एकमात्र पुरुषार्थ करने वाला था तो एक मम्मण सेठ। एकमात्र लंगोटी पहनकर वह उस नदी की बाढ़ में कूद पड़ा था और नदी में बहती हुई लकड़ियों को खींचखींचकर किनारे पर ला रहा था। कैसी दयनीय स्थिति थी ? वह मौत से खेल रहा था। परन्तु उसको उसी में आनन्द था, क्योंकि लोभ ने उसके हृदय पर अधिकार जमा रखा था। लोभ की बढ़ती हुई आग को शान्त करने के लिए वह सतत पुरुषार्थ कर रहा था, परन्तु उसे यह ख्याल नहीं कि 'लाभ से लोभ का शमन कभी सम्भव नहीं है।' वस्तु की प्राप्ति से तो उलटा लोभ प्रबलतर होता है।
• याद आ जाती है उस लोभी फूलचन्द सेठ की बात ।
शान्त सुधारस विवेचन-८४