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कभी पुरुष-देह को धारण करती है तो कभी स्त्री-देह को। आत्मा स्वयं न पुरुष है, न स्त्री। स्त्री-पुरुष का भेद कर्मकृत है। प्रात्मा न देव है, न मनुष्य और न नारक या तिथंच । किन्तु कर्म के अनुसार वह विविध देहों को धारण करती है और नाना प्रकार के दुःखों की भोक्ता बनती है।
प्रस्तुत संसार-भावना के अन्तर्गत पूज्य उपाध्यायजी महाराज संसार का वास्तविक चित्रण प्रस्तुत कर रहे हैं।
दावानल के सन्दर्भ में आपने सुना ही होगा। जब जंगल में भयंकर आग सुलग जाती है, तब उसे किसी भी प्रकार से शान्त करना अशक्य हो जाता है। इस दावानल में चारों ओर से आग की इतनी अधिक प्रबलता होती है कि वन के सभी विराट्काय वृक्ष भी जलकर भस्मसात् हो जाते हैं। दावानल के सुलगने के बाद किसी भी प्रारणी का उसमें से बचना अशक्य हो जाता है। दावानल की लपटों में जीवात्मा अपने जीवन को स्वाहा कर देता है। इस भयंकर दावानल को जल के छिड़काव से शान्त नहीं किया जा सकता है।
__ बस ! वन में दावानल की भाँति ही इस संसार में लोभ का दावानल सुलगा हुआ है। इस लोभ ने सम्पूर्ण संसार में असन्तोष की आग फैला दी है, जिसे किसी भी प्रकार से शान्त करना शक्य नहीं है। कितना ही धन मिल जाए....कितनी ही समृद्धि मिल जाए....कितना ही वैभव मिल जाए....कितनी ही सुविधाएँ मिल जाएँ, परन्तु लोभ के वशीभूत आत्मा कभी तृप्त होती ही नहीं है। इस लोभ की आग ने सबको बेचैन बना दिया है और आश्चर्य है कि इस लोभ के दावानल को शान्त
शान्त सुधारस विवेचन-८३