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सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने इष्ट-विषयों को पाने के लिए दौड़-धूप करती हैं। इष्ट-विषय की प्राप्ति के बाद उसके भोगपरिभोग में लीन बन जाती हैं। भगवान महावीर की वाणी है
'खरणमित्त सुक्खा, बहुकाल दुक्खा ।' एक क्षण भर के लिए इन्द्रिय के विषय सुखदायी हैं, किन्तु उसके परिणामस्वरूप दीर्घकाल तक प्रात्मा को दुःख हो भोगना पड़ता है।
इष्ट विषय के परिभोग में करण भर का सुख है, किन्तु उसके पीछे मण भर का दुःख है। प्रभु ने ठीक ही कहा है
'खारणी अगत्थारण उ कामभोगा' कामभोग आदि तो अनर्थों की खान हैं। जो आत्मा इन्द्रियों के विषय की गुलाम बन जाती है, वह आत्मा कभी सुख का अनुभव नहीं कर सकती है ।
जिस सुख में पराधीनता है, वह सुख कैसे कहला सकता है ?
जरा सोचें ! एक-एक इन्द्रिय के विषय की पराधीनता से भी उन पशु-पक्षियों की क्या हालत होती है ?
(1) स्पर्शनेन्द्रिय के सुख में पागल बना हाथी जोवन पर्यंत गुलामी भोगता है।
(2) रसनेन्द्रिय में आसक्त बनी मछली मौत के घाट उतार दी जाती है।
शान्त सुधारस विवेचन-२८