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2. ममता का त्याग-ममता ही आत्मा के परिभ्रमण और सर्व दुःखों का मूल है। संसार के सुख की ममता से प्रात्मा के विवेक-चक्षु बन्द हो जाते हैं और आत्मा किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है। पूज्य यशोविजयजी म. ने ठीक ही कहा है
ममतान्धो हि यन्नास्ति तत्पश्यति न पश्यति । जात्यन्धस्तु यदस्त्येतद् भेद इत्यनयोर्महान् ॥
अर्थ-जाति से (जन्म से) अन्ध व्यक्ति तो जो पदार्थ है, उसे नहीं देखता है किन्तु जो ममता से अन्ध बना हुआ है वह तो जो जिस रूप में नहीं है, उसे उस रूप में देखता है। यही जन्मान्ध और ममतान्ध में भेद है ।
जाति (जन्म) से अन्ध होना विशेष हानिकर नहीं है, किन्तु जो ममतान्ध बन जाता है, वह तो बहुत कुछ खो देता है ।
ममता से अन्ध व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।
ठीक ही कहा है--'रागी दोषान् न पश्यति ।' रागी-पासक्त व्यक्ति वस्तु में रहे दोष को जान नहीं सकता है ।
अतः जो आत्मा इस ममता का त्याग कर देती है और समता को प्राप्त कर लेती है, वह आत्मा इस संसार में अत्यन्त निर्भय बन जाती है। फिर संसार के सुख या दुःख उसे परेशान नहीं कर सकते।
3. शान्त सुधारस का पान-शान्त सुधारस का पान प्रात्मा को सुख के सागर में मग्न कर देता है। आत्मा तभी तक अशान्त रहती है, जब तक वह शान्त रस का पान नहीं करती है ।
शान्त सुधारस विवेचन-७६