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1. चतुःशरणागति- इस विश्व में जीवात्मा के लिए शरण्यभूत चार ही पदार्थ हैं-(१) अरिहन्त (२) सिद्ध (३) साधु और (४) केवली प्ररूपित धर्म ।
अरिहन्त परमात्मा तीर्थ की स्थापना कर भव्य जीवों के लिए मोक्षमार्ग का प्रदर्शन करते हैं। अतः आद्य उपकारी वे ही हैं, वे स्वयं संसारसागर से पार हो चुके हैं और शरणागत को भी भवसागर से पार कर देते हैं। अतः वे अवश्य शरण योग्य हैं।
सिद्ध भगवान चौदह राजलोक रूप इस संसार के अग्र भाग पर स्थित हैं, जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य आदि प्रात्म-गुणों के भण्डार हैं। सिद्ध भगवन्तों ने आत्मा के पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर लिया है। अरिहन्त परमात्मा के लिए भी वे ध्येयस्वरूप हैं। वे अपनी स्थिति मात्र से मुमुक्षु आत्मानों पर महान् उपकार करते हैं ।
तीर्थंकर के अभाव में शासन की धुरा को वहन करने वाले आचार्य भगवन्त ही हैं। प्राचार्य, उपाध्याय और साधु भगवन्त तीनों का जीवन उद्देश्य प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना हैं। वे ग्रामानुग्राम विचरण कर भव्य जीवों को धर्मोपदेश प्रदान करते हैं और सभी को मोक्षमार्ग में आगे बढ़ाते हैं। उनकी शरणागति से आत्मा में सुषुप्त साधुता जागृत होती है।
केवली प्ररूपित धर्म ही यथार्थ और मोक्षसाधक है। दुनिया में धर्म की बातें तो बहुत लोग करते हैं, परन्तु यथार्थ धर्म जिनेश्वर प्ररूपित ही है। उस धर्म की शरणागति के स्वीकार से आत्मा उत्थान के मार्ग पर आगे बढ़ती है।
शान्त सुधारस विवेचन-७८