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त्याग का पंथ स्वीकार करने वाली भी अनेक प्रात्माएँ यौवन में प्रवेश के बाद पुनः संसार-सुख के अभिमुख बन जाती हैं।
यौवन का अपना अलग ही नशा होता है। अतः इस नशे की वास्तविकता को समझ लेना अनिवार्य है।
भीषण वन को भी पार करने के लिए एक मार्गदर्शक की आवश्यकता रहती है, तो फिर इस यौवन के प्रति भयंकर वन में एकाकी गमन कैसे हो सकता है ? इस 'यौवन' में यदि सन्मार्गदर्शक सद्गुरु का योग न मिले तो यह यौवन उन्मार्ग के गहन गर्त में आत्मा को डुबो देता है ।
पूज्य उपाध्यायजी म. उपमा अलंकार के द्वारा यौवन की उन्मत्तता हमें समझा रहे हैं। जिस प्रकार कुत्ते की पूंछ को सीधी करने के लिए कितना ही परिश्रम किया जाय, सब परिश्रम निरर्थक ही जाता है और वह पूँछ टेढ़ी की टेढ़ी रहती है। बस! इसी प्रकार का यह यौवन का उन्माद है। इसमें कितना ही समझाया जाय, किन्तु इस वय में वासना से निवृत्ति के पुरुषार्थ के लिए जीवात्मा शीघ्र तैयार नहीं हो पाती है ।
परन्तु याद रखें, यह यौवनावस्था सदा काल रहने वाली नहीं है। ___ दूज का चांद प्रतिदिन अपनी एक-एक कला से अधिक प्रकाशित होता जाता है और कुछ ही दिनों के बाद वह चन्द्रमा पूर्णिमा के दिन अपनी सोलह कलाओं से खिल उठता है और वह सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित कर देता है। परन्तु अफसोस ! उसका यह विकास मात्र अल्प समय के लिए ही होता है। दूसरे ही दिन से उसकी कलाएँ क्षीण होने लग जाती हैं और अमावस्या
शान्त सुधारस विवेचन-३१