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की रात्रि में तो उस बेचारे (?) की दशा कैसी हो जाती है, वह हमसे अज्ञात नहीं है। बस ! यही हालत है, इस यौवन की । चढ़ती जवानी में तो व्यक्ति पागल सा बन जाता है। वह किसी की नहीं सुनता है। सबके ऊपर अपनी हुकूमत स्थापित करना चाहता है। परन्तु इस यौवन की सोलह कलाएँ मात्र अल्प वर्षों के लिए ही हैं। फिर उसका पीछा करती है-वृद्धावस्था । बाल सफेद हो जाते हैं। आँखों का तेज घट जाता है। चेहरे में पीलापन आ जाता है। पैर लड़खड़ाने लगते हैं, हाथ धूजने लगते हैं। दाँत गिर पड़ते हैं। वाणी अस्पष्ट हो जाती है। और फिर देखो उसकी हालत ! बच्चों के लिए वह बूढ़ा, तमाशा बन जाता है। युवा के लिए तिरस्कार का पात्र बनता है। फिर न संतान से प्रेम मिलता है, न पत्नी से सहानुभूति ।
यौवन के कुकर्मों का तीव्र कटुफल वह साक्षात् अनुभव करता है।
यदपि पिण्याकतामङ्गमिदमुपगतम्,
भुवनदुर्जयजरापोतसारम् । तदपि गतलज्जमुज्झति मनो नाङ्गिनाम्,
वितथमति कुथितमन्मथविकारम् ॥ मूढ १५ ॥
अर्थ-त्रिभुवन में जिसे कोई न जीत सके, ऐसी जरावस्था मनुष्य के शरीर के सार को पी जाती है और उसके शरीर को निःसार (सत्त्वहीन) बना देती है, फिर भी आश्चर्य है कि लज्जाहीन प्राणी काम के विकारों का त्याग नहीं करता
शान्त सुधारस विवेचन-३२