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यहाँ से चिर-विदाई ले लूगा"तब तू मेरे साथ कहाँ तक चलेगा ?"
बेटे ने कहा- "पिताजी ! आप विज्ञ हैं। आप यह कैसी बात करते हैं ? आज तक कौन किसके साथ चला है ?"
सेठजी ने कहा-"बेटा ! यह कैसी बात करता है। मैंने तेरे लिए क्या नहीं किया ? तेरी शिक्षा के लिए मैंने कितना श्रम उठाया ? मेरे धन का मालिक भी तू बनेगा. फिर भी इस उपकार का यह परिणाम ?"
बेटे ने नम्रता से कहा-"पिताजी ! आपने मुझ पर महान् उपकार किया है, परन्तु अधिक से अधिक मैं आपके साथ श्मशान तक पा सकूगा इससे अधिक तो नहीं। कदाचित् मैं यहाँ उपस्थित नहीं रहा, तो भी प्रथम टेलीफोन मुझे ही होने वाला है। दूर शहर से भी आकर आपकी श्मशान-यात्रा में शामिल होऊंगा और अन्त में आपकी चिता में सर्वप्रथम अग्नि-प्रज्वलित करने का आदेश भी मुझे ही मिलेगा।"
सुनते ही सेठजी को दिन में आकाश के तारे दिखने लग गए। सोचने लगे-"अहो! जिसके लिए जीवन भर मेहनत की. वही मेरी देह में आग लगाएगा"'प्रोह ! धिक्कार है, इस संसार को... यहाँ कोई भी मेरा साथी नहीं।"
अन्त में, चौबीस घंटे जिसकी सेवा की जाती है, उस काया से भी सेठजी ने प्रश्न किया-"बोल ! तू मेरे साथ कहाँ
तक ?"
शान्त सुधारस विवेचन -५०