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सेठजी ने कहा - " बात ऐसी है कि अब मैं थोड़े ही समय बाद इस संसार से चिर- विदाई लेने वाला हूँ, अत: बोल, तू मेरे साथ कहाँ तक चलेगी ?"
सुनते ही पत्नी बोल उठी - " ऐसी कुबात मत कीजिए । "
तू बता तो
सेठजी ने कहा - "इसमें कुबात कैसी ? सही .... | "
पत्नी ने कहा - "आखिर साथ चलने में आप मेरी आशा क्यों रखते हैं ? मैं तो इस हवेली के द्वार तक भी नहीं श्रा सकूंगी और अफसोस ! सबसे पहले घर के कोने में भी मुझे ही बैठना पड़ेगा ।"
सुनते ही सेठजी हताश हो गए। सोचने लगे - " अहो ! जो अर्द्धांगिनी कहलाती है, वह घर के द्वार तक भी नहीं ।"
अब सेठजी पहुँचे अपने युवान पुत्र के पास । सेठजी का पुत्र प्रवीण अत्यन्त ही विनीत था । पिता के निकट आगमन के साथ ही वह अपने आसन से खड़ा हो गया । प्रवीण ने पिता को नमस्कार किया और बोला - " पिताजी ! आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों उठाया ? मुझे ही बुला लेते ।"
सेठजी ने कहा - "बेटा ! इसमें कोई कष्ट की बात नहीं है ऐसे ही मैं आ गया ।"
बेटे ने कहा - "मेरे योग्य सेवा - कार्य ?"
सेठजी ने कहा - "बेटा ! एक बात तुझे पूछने आया हूँ । मैं इस संसार में थोड़े ही दिनों का मेहमान हूँ, कुछ ही दिनों के बाद
शान्त सुधारस विवेचन- ४९
शान्त-४