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मात्र ढोंग ढकोसला ही है। अतः महाराजा से साक्षात् मुलाकात कर इस प्रश्न का समाधान करूंगा ।"
दूसरे दिन राजसभा के पूर्व ही वह महाराजा के पास पहुँच गया । महाराजा को नमस्कार आदि औचित्य व्यवहार कर बोला - "स्वामिन्! एक बात पूछने के लिए आपके सामने उपस्थित हुआ हूँ | आप नाराज तो नहीं होंगे ? आपकी श्र''''ज्ञा हो''''तो ?"
महाराजा ने कहा – “घबराओ मत। जो कुछ पूछना हो निस्संकोच पूछो ।”
पथिक ने कहा--" राजन् ! सम्पूर्ण नगर में यह बात प्रचलित है कि आप इस संसार से विरक्त बन चुके हैं । परन्तु राज सभा आदि में मैंने आपके साक्षात् दर्शन किए, किन्तु आपके बाह्य आचरण में तो मुझे किसी प्रकार के वैराग्य की झांकी नहीं दिख पाई, अतः मेरा यह प्रश्न है कि इस भोग-विलास के साथ आप विरक्त कैसे....?”
महाराजा ने कहा -- "तुम्हारे इस प्रश्न का जवाब मैं पाँच दिन बाद दूंगा, तब तक तुम्हें राजमहल के बाह्य-खण्ड में ही ठहरना होगा ।"
आगन्तुक ने सोचा- " अहो ! लिए राजमहल का खण्ड भी मिल गया
राजा ने कहा- “पाँच दिन तक आपको मेरे राजमहल में
ही भोजन करना होगा ।"
अच्छा हुआ, विश्रांति के
।"
पथिक ने सम्मति दे दी ।
शान्त सुधारस विवेचन- ५६