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सिद्धि के लिए ही सभी एक स्वार्थ सिद्ध हो जाता है, उस इसी सन्दर्भ में एक घटना याद आती है ।
दूसरे को प्रेम देते हैं और ज्योंही व्यक्ति का मुँह भी नहीं देखते हैं ।
किसी नगर में एक सेठ रहता था, सेठ अत्यन्त ही समृद्ध और प्रतिष्ठित था । सेठ के दो पुत्रियाँ और एक पुत्र कुल तीन सन्तान थी । पुत्र का नाम 'अमर' था । अमर यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ ही था कि पिता ने एक सुन्दर रूपवती श्रेष्ठिकन्या के साथ उसका विवाह करवा दिया । सेठ व सेठानी का अपने इकलौते पुत्र के प्रति अपार स्नेह था, वे उसके विरह को सहन नहीं कर पाते थे ।
एक दिन अमर भ्रमरण के लिए नगर के बाहर निकल पड़ता है । अचानक एक महान् महात्मा के साथ उसकी भेंट हो जाती है । महात्माजी के चरणों में वह नमस्कार करता है, महात्मा उसे आशीर्वाद देते हैं । कुछ परिचय के बाद महात्मा उसे संसार की असारता व स्वार्थान्धता समझाते हैं । 'संसार में प्रेम झठा और स्वार्थजन्य है ।' इस प्रकार के महात्मा के वचनों को वह सुन तो लेता है, किन्तु मन विश्वास करने के लिए तयार नहीं होता ।
वह कहना है - "महात्माजी ! आप यह कैसी बातें करते हैं । मेरी माता और मेरे पिता को तो मुझ पर अपार प्रीति है । वे क्षरण भर भी मेरे विरह को सहन नहीं कर पाते हैं । घर पहुँचने में कुछ देरी हो जाय तो वे चिंतातुर हो जाते हैं और चारों और छानबीन करा देते हैं अतः संसार में प्रेम नहीं है, यह बात मैं स्वीकार नहीं सकता ।
शान्त सुधारस विवेचन- ६३