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अन्त में महात्मा बोले-“यदि आप तैयार नहीं हैं तो मैं..."पी जाता हूँ।"
सुनते ही सभी के चेहरे आनन्द से खिल उठे। सभी ने एक ही आवाज में कहा--"महात्माजी! आपका बहुत बड़ा उपकार होगा, आपके उपकार को हम कभी नहीं भूल सकेंगे।"
और तत्काल महात्मा ने उस कटोरे का जल पी लिया। महात्मा के जलपान के साथ ही 'अमर' खड़ा हो गया।
महात्मा तत्काल घर से निकल पड़े और अमर भी उनके पीछे जाने लगा। अमर को स्वस्थ देखते ही माँ बोली"बेटा ! तबियत तो ठीक है न? तू कुछ बोला भी नहीं। तेरे बिना मैं कितनी दुःखी थी ।"
अमर को अब कल्पित प्रेम की वास्तविक अनुभूति हो चुकी थी। उसने कहा-"तुम्हारा प्रेम मैं जान गया.. मेरे लिए प्राण देने वाले तो एक महात्मा ही हैं, मैं उन्हीं के पास जाऊंगा।"
और अमर अपने परिवार को छोड़ महात्मा की शरण में पा गया।
संसार के प्रेम की यही वास्तविकता है। मृत्यु के निकट आने पर स्वजन भी कुछ नहीं कर पाते हैं। स्वजन भी परजन बन जाते हैं ।
संसार में आत्मा को कोई शरणदाता नहीं है। अतः फिर प्रश्न उठता है-किसकी शरण में जाय ? पूज्य उपाध्यायजी म.
शान्त सुधारस विवेचन-६८