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विशेष तप कर लिया तो उसका भी अभिमान""। अरे ! जो ज्ञान अभिमान से दूर रहने की शिक्षा देता है, उसे प्राप्त कर भी मनुष्य अभिमानी बन जाता है। 'मेरे जैसा बुद्धिमान कोई नहीं, मैं सब कुछ जानता हूँ, मेरी सलाह के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता' इत्यादि-इत्यादि अभिमान करता रहता है।
मानव की यह कैसी दुर्दशा है, वह किसी वैभव को पचा नहीं पाता है
धन मिल गया-धन का अभिमान । रूप मिल गया-रूप का अभिमान । बल मिला तो बल का अभिमान ।
ज्ञान मिला तो ज्ञान का अभिमान । ओह ! वह भूल जाता है कवि की इन पंक्तियों को
चुन-चुन कंकड़ महल बनाया, प्राप ही जाकर जंगल सोया। इस तन धन की कौन बड़ाई,
देखत नयनों में मिट्टी मिलाई ॥ लेकिन समृद्धि के शिखर पर आरूढ़ मानव यह भूल जाता है कि
मोह से तेरा कमाया धन यहीं रह जाएगा। प्रेम से प्रति प्रष्ट किया तन जलाया जाएगा। मानव अभिमान के शिखर पर तभी तक अलमस्त रहता है, जब तक कृतान्त-यमराज की नजर में वह नहीं पाता है। यमराज की नजर में आते ही उसके होश-हवास उड़ जाते हैं और वह अत्यन्त दीन बन जाता है ।
शान्त सुधारस विवेचन-५३