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अशुभ-अनिष्ट के संयोग का द्वेष। यही तो संसार का मूल है।
ठीक ही कहा है'संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरम्परा।'
इष्टसंयोग की आसक्ति ने ही अपनी आत्मा को संसार में भटकाया है।
उपाध्यायजी महाराज फरमाते हैं कि भाई ! जिन-जिन पदार्थों का तुझे आकर्षण है, जिनके बिना तुझे अपनी जिन्दगी शून्यसी लग रही है और जिनके प्रति तू अपना स्नेह प्रदर्शित कर रहा है, उन चेतन-अचेतन पदार्थों के स्वरूप का जरा तो विचार कर।
समुद्र में कई बार तरंगें उठती हैं, परन्तु उन लहरियों का अस्तित्व कब तक? क्षण भर में ही वे समाप्त हो जाती हैं। बस, चेतन-अचेतन पदार्थ की पर्यायों की स्थिति भी ऐसी ही है। वे भी क्षरण भर अत्यन्त आकर्षक लगते हैं और कुछ ही समय बाद अत्यन्त तिरस्करणीय हो जाते हैं।
और अहो ! स्वजन और धन के संगम तो इन्द्रजाल के समान हैं। कोई व्यक्ति माया अथवा मंत्र-शक्ति से विविध रचनाएँ खड़ी कर देता है, परन्तु वे वास्तविक न होने से विश्वसनीय नहीं हैं।
अंबड़ श्रावक ने सुलसा के समकित की परीक्षा के लिए इन्द्रजाल से ब्रह्मा, विष्णु, महेश और २५वें तीर्थंकर का रूप किया था, फिर भी सुलसा अपने सम्यक्त्व से चलित नहीं हुई थी।
शान्त सुधारस विवेचन-४०