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सुलसा को उस इन्द्रजाल में लेश भी आकर्षण नहीं था, इसी प्रकार पूज्य उपाध्यायजी म. फरमाते हैं कि इस जगत् में कंचनकामिनी, कुटुम्ब-परिवार का जो समागम हुआ है, वह तो इन्द्रजाल की भाँति क्षण-विनश्वर है, अतः उसमें मोहित होना तो मूढ़ता की ही निशानी है।
कवलयन्नविरतं जङ्गमाजङ्गमम्,
जगदहो नैव तृप्यति कृतान्तः । मुखगतान् खादतस्तस्य करतलगत
न कथमुपलप्स्यतेऽस्माभिरन्तः ॥ मूढ० १६ ॥ अर्थ-बस और स्थावर जीवों से भरपूर इस जगत् को निरन्तर ग्रास करते हुए भी आश्चर्य है कि यह यमराज कभी तृप्त नहीं होता। मुख में रहे हुए कवल को खा रहा है तो उसकी हथेली पर रहे हुए अपना अन्त कैसे नहीं आएगा? ।। १६ ।।
विवेचन मृत्यु का सतत भय ___एक मोटा-ताजा और स्वस्थ व्यक्ति है। कुछ कारणवश उसे दो दिन से भोजन नहीं मिल पाया है। आज एक बड़े सेठ के घर उसे भोजन का आमन्त्रण मिला है। भोजन के लिए वह आसन पर बैठ गया है। मिष्टान्न-पक्वान्न-नमकीन और सागसब्जी से युक्त थाल भरकर उसके सामने लाया जाता है। उसे गहरी भूख लगी है। भोजन आते ही वह उस पर टूट पड़ने की तैयारी में है, अतः भोजन का थाल आते ही वह जल्दी-जल्दी
शान्त सुधारस विवेचन-४१