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अगरण भावना ये षट्खण्डमहीमहीनतरसा, निजित्य बभ्राजिरे , ये च स्वर्गभुजो भुजोजितमदा मेदुर्मुदा मेदुराः। तेऽपि क्रूरकृतान्तवक्त्ररदननिर्दल्यमाना हठादत्राणाः शरणाय हा दशदिशः प्रेक्षन्त दीनाननाः ॥ २१ ॥
(शार्दूलविक्रीडितम्) अर्थ-अपने असाधारण बल से छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर जो सुशोभित थे, जो स्वर्ग को भोगने वाले थे, जो अपनी भुजाओं के बल से मदोन्मत्त बने हुए थे और आनन्द की लहरियों में मस्त बने हुए थे, वे जब अत्यन्त क्रूर यमराज द्वारा अपने दाँतों से नष्ट कर दिए गए, तब भी वे अशरणभूत, दीन मुख वाले शरण के लिए दशों दिशाओं में देखते हैं ।। २१ ॥ .
विवेचन अशरण्य संसार
ग्रन्थकार महर्षि अशरण भावना की प्रस्तावना करते हुए फरमाते हैं कि इस विराट् संसार में प्रात्मा के लिए शरण्यभूत एक भी स्थान नहीं है। जीवात्मा को जब थोड़ी सी समृद्धि प्राप्त हो जाती है, कुछ प्रसिद्धि हो जाती है और कुछ वैभव की
शान्त सुधारस विवेचन-४६