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असकृदुन्मिष्य निमिषन्ति सिन्धूमिव
च्चेतनाचेतनाः सर्वभावाः । इन्द्रजालोपमाः स्वजनधनसङ्गमा
स्तेषु रज्यन्ति मूढस्वभावाः ॥ मूढ० १८ ॥ अर्थ-समुद्र में उठती लहर के समान चेतन और अचेतन पदार्थ के समस्त भाव एक बार उठते हैं और पुनः शान्त हो जाते हैं। स्वजन और धन का संगम तो इन्द्रजाल के समान है, उनमें तो मूढ़ स्वभाव वाले ही राग कर सकते हैं ।। १८ ।।
विवेचन संसार के संयोग नश्वर हैं
संसार के समस्त चेतन और अचेतन भावों की अनित्यता को बतलाते हुए पूज्य उपाध्यायजी म. फरमाते हैं कि अहो! इस दुनिया में आकर्षण की वस्तु भी क्या है ? जिसे देखो, जिससे प्रेम करो अथवा जिसे प्रेम दो, वे सब वस्तुएँ तो क्षणविनाशी ही हैं। या तो हमें उन वस्तुओं को छोड़कर जाना पड़ता है, अथवा वे वस्तुएँ हमें छोड़कर चली जाती हैं। पंचसूत्रकार ने कहा है
'संयोगो वियोगकारणम् ।' संयोग वियोग का कारण है। जहाँ-जहाँ संयोग है, उसके ऊपर वियोग की नंगी तलवार लटक ही रही है ।
शुभ-इष्ट के संयोग का अनुराग ।
शान्त सुधारस विवेचन-३६