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विवेचन पाशा की गुलामी भयंकर है
यौवन का सूर्य ज्योंही अस्ताचल की ओर ढलने लगता है, त्योंही शरीर कृश होने लगता है। शरीर को कृशता के साथ सभी इन्द्रियाँ भी शिथिल होने लगती हैं और मनुष्य का देह जरा से ग्रस्त हो जाता है।
'चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात' कहावत के अनुसार यौवन को चमक भी कुछ ही दिनों की होती है । बुढ़ापा शरीर की शक्ति का शोषण कर देता है। हाथ-पैर अत्यन्त कमजोर हो जाते हैं।
जरा से ग्रस्त व्यक्ति की न तो कोई सेवा करता है और न ही कोई उसके सामने देखता है। परन्तु फिर भी आश्चर्य है कि जरा से जीर्ण देह वाले बूढ़े को भी कामवासना परेशान करती है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है
अङ्ग गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं,
तदपि न मुञ्चति प्राशापिण्डम् ।। अहो ! बूढ़े की भी क्या हालत है ! शरीर का प्रत्येक अंग कमजोर हो चुका है, सिर के बाल सफेद हो चुके हैं, दाँत गिर चुके हैं, मुंह से लार टपक रही है, लकड़ी के सहारे चल रहा है, फिर भो महान् आश्चर्य है कि प्राशापिंड को वह नहीं छोड़ रहा है।
खाने की, पीने की, भोगने की तथा ऐश-आराम की वासनाएँ
शान्त-३
शान्त सुधारस विवेचन-३३