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उस मनस्ताप से जिसका विवेक नष्ट हो चुका हो, उसके मनमन्दिर में समता-लता का विकास अशक्य ही है ।
समस्त साधना की सफलता का श्राधार समता की प्राप्ति ही है । परन्तु प्रार्त और रौद्रध्यान समतारूपी लता को जलाकर भस्मीभूत कर देते हैं ।
विषय की लोलुपता में से प्रार्त्त - रौद्रध्यान का जन्म होता है । विषयराग के निवारण बिना आतं रौद्रव्यान का निवारण सम्भव नहीं है और प्रार्त- रौद्रध्यान के निवारण बिना समतालता की प्राप्ति सम्भव नहीं है । अत: जिस श्रात्मा में प्रार्त्तरौद्रध्यान की प्रबलता है और जो आत्मा विषयों में आसक्त बनी हुई है, उसके लिए समता प्राप्ति की आशा स्वप्नतुल्य ही है ।
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यस्याशयं श्रुतकृतातिशयं विवेकपीयूषवर्षरमरणीय रमं
सद्भावनासुरलता न हि तस्य दूरे,
श्रयन्ते ।
लोकोत्तर प्रशमसौख्यफलप्रसूतिः ।। ६ ।।
( वसन्ततिलका )
अर्थ - श्रुतज्ञान से निपुरण बना हुआ जिसका श्राशय, विवेक रूपी अमृतवर्षा से सुन्दरता का श्राश्रय बना हुआ है, उसके लिए लोकोत्तर प्रशमसुख को जन्म देने वाली सद्भावना रूपी कल्पलताएँ दूर नहीं हैं ॥ ६ ॥
शान्त सुधारस विवेचन - १०