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प्रनित्य भावना
वपुरिवपुरिदं विदभ्रलीला
परिचितमप्यतिभङ्गुरं नराणाम् । तदतिभिदुरयौवनाविनीतम् , - भवति कथं विदुषां महोदयाय ॥ ६ ॥
(पुष्पितापा) अर्थ-चंचल बादल के विलास की तरह यह मनुष्य देह क्षणभंगुर है। यह शरीर यौवन के कारण वज्रवत् अक्कड़ बना हुमा है। ऐसा शरीर विद्वज्जन के महा-उदय के लिए कैसे हो सकता है ? ॥६॥
विवेचन क्षरणविनश्वर देह !!
ग्रन्थकार महर्षि 'अनित्य भावना' का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम शरीर की अनित्यता प्रस्तुत कर रहे हैं।
मानव का यह देह आकाश के बादलों की भाँति अत्यन्त चपल है। शरद् ऋतु में बादलों से छाये हुए आकाशमंडल को देखा ही होगा? क्षणभर में सम्पूर्ण आकाश बादलों से व्याप्त
शान्त सुधारस विवेचन-१४