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प्रनित्यभावनाष्टकम्
( राग-रामगिरि ) मूढ मुह्यसि मुधा, मूढ मुह्यसि मुधा,
विभवमनुचिन्त्य हृदि सपरिवारम् । कुशिरसि नीरमिव गलदनिलकम्पितम्,
विनय जानीहि जीवितमसारम् ॥ मूढ... १२ ॥ अर्थ-हे मूढ़ पात्मन् ! अपने परिवार और वैभव का हृदय में बारम्बार विचार कर । तू व्यर्थ में ही क्यों मोहित हो रहा है ? हे विनय ! तृण के अग्र भाग पर पवन से कम्पायमान जलबिंदु के समान इस असार जीवन को तू जान ले ।। १२ ।।
विवेचन नाशवंत जीवन
पुण्य के उदय से जीवात्मा को धन की प्राप्ति होती है.... समृद्धि की प्राप्ति होती है और उस वैभव और विलासपूर्ण जीवन में जीवात्मा यह भूल जाता है कि उसे प्राप्त हुई यह समृद्धि क्षणभंगुर और नश्वर है। मदिरापान के बाद जैसे शराबी अपने वास्तविक अस्तित्व को भूल जाता है, उसी प्रकार
शान्त सुधारस विवेचन-२४