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(2) प्रशरण भावना -- इस संसार में प्रात्मा के लिए वास्तव में कोई शरण्य नहीं है। आपत्ति-विपत्ति में उसका कोई रक्षक नहीं है।
(3) संसार भावना-इस संसार में एक ही आत्मा कभी माता बनती है, तो कभी पुत्र बनतो है। संसार के सम्बन्ध बड़े ही विचित्र हैं।
(4) एकत्व भावना-आत्मा अपने सुख-दुःख की स्वयं ही कर्ता है । वह अकेली आई है और उसे अकेले ही जाना पड़ेगा।
(5) अन्यत्व भावना-आत्मा देह आदि से सर्वथा भिन्न है। वह न तो धन की स्वामी है और न ही अपने देह की।
(6) अशौच भावना-यह काया मांस-रुधिर-अस्थि आदि अशुचि से भरपूर है।
(7) प्रास्रव भावना-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद आदि के सेवन से निरन्तर आत्मा में कर्मों का आगमन चालू है ।
(8) संवर भावना-क्षमादि यतिधर्मों के परिपालन से प्रात्मा के प्रास्रव-द्वार बन्द हो जाते हैं ।
(9) निर्जरा भावना-बारह प्रकार के तप के आसेवन से आत्मा सर्व कर्मों से मुक्त बनती है।
(10) धर्म भावना-प्रात्मा के स्वरूप तथा मुक्तिमार्ग के सम्बन्ध में विचार करना धर्मभावना है।
(11) लोकस्वरूप भावना-चौदह राजलोक का स्वरूप क्या है ? इत्यादि विचार करना ।
(12) बोधिदुर्लभ भावना-सम्यग्दर्शन की प्राप्ति इस संसार में अत्यन्त दुर्लभ है।
शान्त सुधारस विवेचन-१३