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सहजानन्दशास्त्रमालायां सकलषड्जीवनिकायनिशम्भनविकल्पात्पंचेन्द्रियाभिलाषविकल्पाच्च व्यावात्मनः शद्धस्वरूपे संयमनात् स्वरूपविश्रान्तनिस्तरङ्गचैतन्यप्रतपनाच्च संयमतपःसंयुतः, सकलमोहनीयविपाकविवेकभावनासौष्ठवस्फुटीकृतनिविकारात्मस्वरूपत्वाद्विगत रागः, परमकलावलोकनाननुभूयमानसातासातवेदनीयविषाकनिर्वतितसुखदुःख जनितपरिणामवैषम्यत्वात्समसुखदुःख: श्रमणः शुद्धोपयोग इत्यभिधीयते ।। १४ ॥ उभयपदविवरण- सुविदिदपयत्थसुत्तो सुविदितपदार्थसूत्रः संजमतवसंजुदो संयमतपःसंयुतः विगदरागो विगतराग: समणो श्रमणः समसुहदुक्खं समसुखदुःखः सुद्धवओगो शुद्धोपयोग:-प्र० एक० भणिदो भणितःप्र० ए० कृदन्त क्रिया। निरुक्ति--सूत्रयति इति सूत्रः, रज्यते इति रागः, श्राम्यति इति श्रमणः) समाससुविदिते पदार्थसूत्रे येन सः, संयमः तपः चेति संयमतपसी ताभ्यां संयुतः, समे सुखःदुखे यस्य सः, शुद्धश्चासौ उपयोगः शुद्धोपयोगः ।।१४॥ - उपयोग होने लगता है। (५) स्वभावके अनुरूप उपयोग रखनेको धुन वाला प्रात्मा अपनेको प्राणासंयम व इन्द्रियासंयमसे हटाकर शुद्धात्मसंवेदनके बलसे निज शुद्धस्वरूप में संयत होता है । (६) जब प्रात्मा शुद्ध स्वरूपमें संयत होता है तब स्वरूप में स्थिरताके कारण विकल्प. रहित होता हुआ चैतन्यस्वरूपमें प्रतापवंत होता है । (७) अविकार आत्मस्वभावके अभिमुख होकर अपना प्रताप पाने वाला अविकार शुद्धात्मत्वकी भावनाके बलसे प्रात्मा रागद्वेषादि विकारोंसे रहित हो जाता है । (८) मोक्षमार्गमें प्रगतिशील अन्तरात्मा अपने अविकार चित्स्वरूपके संचेतनके स्वादमें तृप्त होता हुआ सुख-दुःखादि स्थितियोंमें समान निरपेक्ष हो जाता है । (६) समताका साधन उपाधि और विकारसे भिन्न अपनेको मात्र चैतन्यस्वरूपमय निरखना है । (१०) अविकार सहजसिद्ध आत्मस्वरूपका संचेतन वह परम कला है जिसके प्रसाद से परम समता उपलब्ध होती है । (११) सुख दुःखमें समान विगतराग शुद्धात्मत्वमें उपयुक्त श्रमण स्वयं शुद्धोपयोग है । .. सिद्धान्त--(१) स्वपरविवेकबलसे स्वको एकत्वविभक्त निरखकर मात्र आत्मस्वभाव में उपयुक्त होकर आत्मा सिद्धि पाता है । - दृष्टि-- १- ज्ञाननय (१६४)।
प्रयोग- शद्धोपयोगके लाभके लिये ज्ञानसंयमी विराग सुख दुःख में समान होना आवश्यक है ॥१४॥
___ अब शुद्धोपयोगको प्राप्तिके अनन्तर होने वाले शुद्ध प्रात्मस्वभावके लाभको प्रशंसा करते हैं--[यः] जो [उपयोगविशुद्धः] उपयोगविशुद्ध अर्थात् शुद्धोपयोगी है [आत्मा] वह प्रात्मा [विगतावरणान्तरायमोहरजाः] ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहरूप रजसे