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नृत्याध्यायः
परिमण्डलितोत्तानश्चरितेऽथ स्वसम्मुखः ॥१५॥
मध्ये गते स्वस्तिकोऽसौ पुरस्कारेऽपि संमतः । 16 चरित के प्रदर्शन में स्वसंमुख हस्त को चारों ओर घुमाकर उत्तानावस्था में रखना चाहिए। मध्यावस्था तथा पुरस्कार के अर्थ में स्वस्तिक हस्त का प्रयोग करना चाहिए।
संश्लिष्य मणिबन्धौ स्तः विनये चतुरोदितौ ॥१६॥ विनय के भाव प्रदर्शित करने में दोनों कलाइयों को सटाकर चतुर हस्त का विनियोग करना चाहिए।
सुरते स्वस्तिकाकारौ चातुर्यवचनेषु तु । 17 संयुतौ तौ विधातव्यावर्हायां मुखदेशगौ ॥१७॥ स्वस्तिकौ तौ प्रयोक्तव्यौ स्वागताभिनयेऽपि च । 18 निपुणे श्लिष्टविश्लिष्टौ नेत्रे तद्देशविच्युतौ ॥१८॥ स्वस्तिकीभूय तो स्तोऽथ चाक्षुषे विस्तृताविमौ । 19
स्वस्तिकावथ कर्तव्यौ प्रजा(?) स्तद्वेष्टिताविमौ ॥१६॥ रतिक्रीड़ा और चातुर्यपूर्ण बातों के अभिव्यंज में स्वस्तिक हाथों का प्रयोग करना चाहिए। पूजाआराधना का भाव व्यक्त करने में दोनों स्वस्तिक हाथों को मुख के सामने अवस्थित रखना चाहिए। स्वागत के अभिनय में भी स्वस्तिक हस्तमद्रा का प्रयोग करना चाहिए। निपणता के भाव दिखाने में स्वस्तिक हस्त को मिला कर या अलग-अलग भी दिखाना चाहिए । नेत्र का भाव प्रदर्शित करने में स्वस्तिक हस्त को आँख से गिरा कर रखना चाहिए। आँखों का भाव दिखाने के लिए स्वस्तिक हस्त को फैला कर भी रखा जा सकता है। नाटयशास्त्रियों के मत से नेत्रों का भाव प्रदर्शित करने के लिए स्वस्तिक हस्त को वेष्टितावस्था में भी रखा जा सकता है। ६. हंसास्य हस्त और उसका विनियोग
यत्र त्रेताग्निसंस्थानास्तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यमाः ।। संलग्नामा यदाङगुल्यो शेषे स्तो विरलोवंगे ॥२०॥
हंसास्यः स करः प्रोक्तस्तदा जिस अभिनय में तीन अग्नियों (दक्षिण, गार्हस्पत्य और आहवनीय) के विन्यास रूप तर्जनी अंगठे के पास की उँगली], अंगुष्ठ और मध्यमा [बीच की उँगली] नामक उँगलियों के अग्रभाग सटे हों और शेष
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