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२. आसीन
नृत्याध्यायः
यत्राङ्गना खण्डितास्ते चिन्ताशोकसमाकुला । वजिताभिनयैर्वाक्यैस्तदासीनं मतं बुधैः ॥१४२॥
जहाँ खण्डिता नायिका चिन्ता और शोक से व्याकुल तथा अभिनय एवं वचनों से रहित होकर बैठी रहती है, वहाँ बुधजन आसीन लास्यांग बनाते हैं ।
यथा
प्रसरति दिनमणितेजसि विगलित तमसि प्रकाशिते नभसि । 1592 नीताधररागं पश्य वयस्ये समागतं रमणम् ॥१४३॥
जैसे; हे सखी ! की किरणों के फैल जाने तथा अंधकार के नष्ट हो जाने पर और आकाश के प्रकाशित हो जाने पर अधर की लालिमा से रहित होकर आये हुए कान्त को देखो ।
भालेऽलक्तकमञ्जिताधरमुरः कर्पूरमुद्रं वहन् । निःशुङ्कः पतिरभ्युपैति वियति प्रत्यग्रसूर्योदये ॥ चिन्तासागरसन्निमग्नमनसा नीता मया यामिनी । किं कुर्वे सखि कैतवं कलयता मुग्धामुना वश्चिता ॥ १४६४ ॥
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यत्र पात्रं कालहीनं नाट्यपाठ्यविवजितम् । भाषासिन्धुभवाच्चैतत् सैन्धवं समुदीरितम् ॥ १४६५ ॥
ललाट पर महावर, लालिमा रहित अघर और कर्पूर से अंकित वक्षःस्थल धारण किये हुए (मेरे) पति आकाश में सद्यः सूर्योदय हो जाने पर निःशंक होकर (मेरे) पास आ रहे हैं । चिन्ता रूपी सागर में डूबे हुए मन वाली मैंने (सारी) रात बिता दी । सखी ! क्या करूँ ? इस छलिये ने भोली-भाली मुझको ठग लिया । ३. सैन्धव
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विचित्रं यत्र कान्तानां गीतं वाद्यं च नर्तनम् । मनोवाक्कायचेष्टाभिर्हीनं सा पुष्पमण्डका ॥१४६॥
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जहाँ पात्र समय से रहित, नाट्य- पाठ्य से अनभिज्ञ हो और भाषा सिन्धु देश की हो, वहाँ सैन्धव लास्यांग होता है ।
४. पुष्पमण्डिका
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