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लास्यांग प्रकरण
क्रमादधः पुनः पश्चादूर्ध्वमेतदुरोङ्कणम् । इदमेव नटाः प्राहुस्त्रङ्गशब्देन कोविदाः ॥ १५२७॥ मनाक् सुललितं तिर्यक् चालनं यत् कुचांसयोः । विलम्बेनाविलम्बेन तद्वचुः केप्युरोङ्कणम् ॥१५२८ ॥ यत्र पात्रं द्रुतं गात्रं कम्पयेत् तालकालतः । मनाङ् मनोहरं केचिदूचुरे तदुरोङ्कणम् । इदमेव रचे नाम्नाचक्षन्ते साम्प्रदायिकाः || १५२६ ॥
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नर्तकी तनुते नृते यदाङ्गं स्तोकसौष्ठवम् । भावा हृदयोपेता विलासमधुरान्वितम् । लाभावालसं यत्र सा ढिल्लाई तदा मता ॥ १५३०॥
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यदि कंधों तथा स्तनों को ताल- मात्रा के प्रमाण से क्रमशः या एक समय शीघ्रता से या विलम्ब से क्रमश: नीचे और ऊपर की ओर चलाया जाय, तो उसे उरोकंण लास्यांग कहते हैं । इसी को विज्ञ नर्तक जंग शब्द से अति करते हैं । कोई आचार्य कहते हैं कि कुचों तथा कंधों को घोड़ा सुन्दर ढंग से तिरछा करके विलम्ब से या शीघ्रता से जो चलाया जाता है, वह उरोकंण कहलाता है। अन्य विद्वानों का कहना है कि जहाँ अभिनेता ताल- मात्रा के प्रमाण से शरीर को कुछ सुन्दरतापूर्वक शीघ्रता से कम्पित करता है, वहाँ उरोकंण लास्यांग . होता है। इसी को नाट्य-सम्प्रदाय के आचार्य रचे नाम से पुकारते हैं ।
७. ढिल्लाई
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॥१५३१॥
चार्यां स्थानेऽथवा ताललयानुगतिभिर्यदा । विधुता कम्पिताधूतपरिवाहितकम्पितैः पञ्चभिर्मूर्धभियंत्र पात्रं चित्तानि पश्यताम् । श्रानन्दयत्यसौ सद्भिस्तदा त्रिकलिरीरितः ॥ १५३२॥
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जब नृत्य में भावों से सरस हृदयवाली नर्तकी विलास के माधुर्य से युक्त और शृंगार- सूचक हाव-भावों से अलसाये हुए अंग को किञ्चित् सुन्दरता के साथ फैलाती है, तब उसे ढिल्लाई लास्यांग कहते हैं । ८. त्रिकलि
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